संजीव कुमार शुक्ला
सामाजिक सरोकारों-चिताओं से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं। यही कारण रहा कि लोगों की निगाहों में पत्रकारिता का दर्जा हमेशा ऊंचा रहा। स्वतंत्रता आंदोलन में लगभग सभी बड़े नेताओं ने पत्रकारिता को एक आंदोलन के रूप में अपनाया।
ये बड़े नेता ब्रिटिश सत्ता के उस कथित कल्याणकारी शासन के छद्मआवरण को अपनी पत्रकारीय मेधा से ध्वस्त करना चाहते थे, जिसकी आड़ में वह भारत का शोषण कर रहे थे।
किसी आंदोलन या क्रांति को सफल तभी बनाया जा सकता है जब उसका वैचारिक आधार संपुष्ट हो और यह तभी संभव है जब विचारों की बुनावट भेदभाव से परे, लोकहित की भावना से संपृक्त हो।
अनीति की राह चले सत्ता प्रतिष्ठानों को सबसे ज्यादा डर निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता से होता है, क्योंकि पत्रकारिता के तीखे प्रश्न उसके खोखले आधार को काटकर उसको भूलुंठित कर देते हैं।
पत्रकारिता के इसी महत्त्व को देखते हुए अब सत्ताधारियों ने अपनी जमीन को बनाये रखने के लिए तथा अपने शासन की अपरिहार्यता को सिद्ध करने की गरज से पत्रकारों के चोले में ऐसे पत्तलकारों को पाल रखना शुरू कर दिया है, जो अपने तुमुल स्वर में सच की आवाज़ को दबाने में माहिर हों।
अब तो पार्टियों के अपने-अपने पत्रकार होते हैं, जो झूठ को सच और सच को झूठ में रूपांतरित करने की कला में बहुत प्रवीण होते हैं। झूठ के सच में स्थापन की यह दक्षता कोई मामूली दक्षता तो नहीं होती, फलतः पारितोषिक के रूप में सांसदी या मन्त्रिपद देने की व्यवस्था की जाती है।
पत्रकारिता तो वही जो प्रभाव से परे अभावों की कथा तथा मजलूमों की पीर को बेबाकी से बयां कर सके।
कोरोना की मार से सड़क पर आ गए उन अभागों की व्यथा को समझना और उसे सबके सामने लाना, व्यवस्था में खलल पैदा करना नहीं, बल्कि समस्या की तरफ़ ध्यानाकर्षण है। भाई वह भी इसी समाज के ही अंग हैं।
पत्रकारिता के नाम पर उनको मजाक का विषय न बनाया जाय। कुछ पत्रकार ऐसे समय भी अपनी श्वानभक्ति के चलते ऊंटपटांग बोल रहें हैं।
कोई भीड़ देखकर यह कह रहा कि ये लोग छुट्टियां मनाने घर जा रहे हैं तो कोई कुछ कह रहा।
कुलमिलाकर अब तो थोक के भाव में “पुंज/लुंजपुंज पत्रकारिता” हो रही , शिष्ट शब्दों में इसे पीत-पत्रकारिता कहते हैं।
इससे बचना होगा …..
https://www.hindiblogs.co.in/contact-us/
https://www.pmwebsolution.com/