जनसंख्या बढ़ती गयी, घटता गया विकास
अभी न चेतोगे तो, फिर होगा सत्यानाश
नित्य विश्व की जनसंख्या में वृद्धि निरंतर होती है।
फटे वसन घूमें कुछ जानता लाखों भूखी सोती है।।
नहीं झोपड़ी सोने को तो सड़क किनारे सो जाते।
फिर भी लाखों लोग जगत में अपना घर ही बनवाते।
इसलिए फिर खेत नित्य ही मीलों घटते जाते हैं।
घर के चक्कर में ज़मीन के टुकड़े कर बिक जाते हैं।।
इधर रोज हरियाली घटती है उद्योग लगाने को।
खेत बिना राशन पानी भी कैसे मिले जमाने को।।
धीरे – धीरे हरियाली यदि मिट जाएगी इस भू से।
कौन प्रदूषण रोक बचायेगा हमको तपती लू से।।
गन्दी बदबूदार बस्तियां हो मजबूत बनाओगे।
उसमें रहकर तनमन से तुम स्वस्थ कहां बन पाओगे।
जनसंख्या की वृद्धि धारा के लिए मुसीबत ही होगी।
हरियाली काम हुई प्रदूषण बढ़ा वनी व जनता रोगी।
औलादें कमजोर तुम्हारी आगे क्या कर पाएंगी।
अस्पताल की रोज हाजरी लगा – लगा मर जाएंगी।
कलुआ, मलुआ, रज्जो, रजिया कितनी भीड़ बढ़ाओगे।
खुद घिर कर कपटों में इनको कैसे सुख पहुंचाओगे।।
बुनियादी आवश्यकता भी पूरी कब कब पेट हो।
कई बार तो इस चिंता में भूखे ही सो जाते हो।।
धीरे – धीरे गांव सिकुड़ते चोट होते जाएंगे।
अन्न, दूध, तरकारी भी कैसे सबको दे पाओगे।।
याद रहे आधा भारत तो गांवो में ही बस्ता है।
देश प्रेम का कमल गांव – गलियों के बीच खिलता है।।
गांव छोड़ पैसों की खातिर जब शहरों को जाओगे।
हुए देश का कहां भला, शहरों का बोझ बधाओगे।
वाहन बढ़े, बढ़ेगा धुआं और बढ़ेगा जग में शोर।
निर्मल जल की बूंद न देगी हमको ये गंग हिलोरे।।
पढ़ी लिखी सन्तान एक हो बुद्धिमान और स्वस्थ सवल।
हो अनपढ़ सन्तान बीस तो भी निकले ना कोई हल।।
एक पूत ही मात सिंहनी निर्भय होकर सोती है।
दस बच्चों के सहित गधिया केवल बोझ ढोती है।।
एक चंद्रमा दूर अकेला नभ का तम हर लेता है।
लेकिन झुण्ड सितारों का बस टीम – टीम कर लेता है।
सोच समझकर जनसंख्या पर शीघ्र नियंत्रण कर डालें।
सुख से जीना है जग में तो दूर अंधेरा कर डालें।।
जनसंख्या पर रोग लगी धरती को स्वर्ग बनाओगे।
अगली पीढ़ी की खातिर उपकार बढ़ाकर जाओगे।।
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