एक गुरुकुल से 3 युवक शिक्षा लेकर वापस लौट रहे थे। उनकी सभी विषयों में परीक्षा ले ली गई थी।
केवल ‘ धर्म ‘ रह गया था। और वे हैरान थे कि धर्म की परीक्षा क्यों नहीं ली गई?
और अब तो परीक्षा का कोई सवाल ही ना था। वे उत्तीर्ण भी घोषित कर दिए गए थे।
वे गुरुकुल से थोड़ी ही दूर गए होंगे कि सूर्य ढलने लगा था और अब रात्रि उतर रही थी। एक झाड़ी के पास पगडंडी पर बहुत से कांटे पड़े थे।
पहला युवक छलांग लगाकर कांटों को पार कर गया।
दूसरा युवक पगडंडी छोड़ किनारे से निकल कर उनके पार हो गया लेकिन तीसरा रुक गया और उसने कांटों को बीन कर झाड़ी में डाला, तब आगे बढ़ा।
शेष दो ने उससे कहा, “यह क्या कर रहे हो? रात बढ़ रही है और हमें शीघ्र ही वन के पार हो जाना है।”
वह हंसा और बोला, “इसलिए इन्हें दूर कर करता हूं कि रात उतारने को है और हमारे बाद जो भी राह पर आएगा उसे कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे।”
वे यह बात करते ही जा रहे थे कि उनके आचार्य झाड़ी के बाहर आ गए। वे झाड़ी में छिपे थे। और उन्होंने तीसरे को कहा, “मेरे बेटे तू जा।
तू धर्म की परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है।” और शेष दो युवकों को लेकर वे गुरुकुल वापस लौट गए।
उनकी धर्म कि शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी। जीवन की क्या परीक्षा है सिवाय जीवन के? और धर्म तो जीवन ही है।
इसलिए को मात्र परीक्षाएं पास करके समझते हैं कि वे शिक्षित हो गए, वे भूल में हैं।
वस्तुत: तो जहां परीक्षाएं समाप्त होती हैं वहीं असली शिक्षा शुरू होती है।
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