बंटवारे के बहाने गांधी पर निशाना-bantavaare ke bahaane gaandhee par nishaana

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अजीब तर्क है और धूर्तता भी कि गांधी तो कहते थे कि बंटवारा हमारी लाश पर होगा, फिर जीते जी उन्होंने बंटवारे को स्वीकार कैसे कर लिया? माने वो जिंदा कैसे रह गए?

सही बात है जो लोग गांधी की मृत्य की कामना में जी रहें हों, वह उनके जीवित रहने पर सवाल तो खड़ा करेंगे ही! और मजे की बात यह है कि यह सवाल उन लोगों के द्वारा खड़ा किया जाता रहा है, जिनकी द्विर्राष्ट्रवाद में गम्भीर आस्था है, जो आज भी धर्म आधारित राज्य की मांग की इच्छा पाले हुए हैं।

क्या हद दर्जे का दोमुंहापन है कि एक तरफ तो खुद धर्म आधारित बंटवारे की पुरजोर वकालत करते हैं और दूसरी तरफ विवशता में बंटवारा स्वीकार करने पर गांधी की आलोचना नीचता की सीमा तक जाकर करते हैं।

जो लोग सुभाष, भगतसिंह, पटेल का नाम लेकर गांधी, नेहरू पर हमला करते हैं, हकीकत में उन्हें सुभाष, भगतसिंह और पटेल के सिद्धांतों से भी कुछ लेना-देना नहीं है। भगतसिंह और सुभाष, गांधी के आलोचक जरूर थे, लेकिन इन लोगों ने कभी भी गांधी की नीयत पर शक नहीं किया।

भगतसिंह और सुभाष के कंधों का इस्तेमाल करने वालों को पता हो कि भगतसिंह नेहरू के प्रसंशक थे और सुभाष अपनी सेना में गांधी और नेहरू के नाम की ब्रिगेड रखते थे।

लोगों को पता होना चाहिए कि गोडसे ने अपनी पत्रिका अग्रणी में गांधी को रावण के रूप में चित्रित किया था, जिसके दस सिरों में पटेल, सुभाष, नेहरू, मौलाना आजाद तथा अम्बेडकर आदि शामिल थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि चित्र में रावण पर शरसंधान करने वाले वीरद्वय श्यामाप्रसाद मुखर्जी और सावरकर थे।

गांधी का जिंदा रहना बहुतों को अखरता होगा, अन्यथा भारत जैसे देश में एक संत के सीने में गोलियां न उतारी गईं होती। 

हालांकि सांप्रदायिक खूनी खेल में कराह रही मानवता को देख गांधी जी ने खुद ही अपनी 125 वर्ष जीने की इच्छा त्याग दी थी।  उन्होंने अपनी प्रार्थना सभा में लोगों से उनके मरने की दुआ मांगने को कहा। यह बहुत ही मर्मभेदी अपील थी!

यह अपील वह नहीं समझेंगे, जिनके लिए मजहब की संकीर्ण समझ नम्बर एक पर और इंसानियत दूसरे पायदान पर है। उस गांधी पर बंटवारे का आरोप जिसने खंडित आजादी के किसी भी उत्सव से स्वयं को अलग रखा तथा ऐसे समय सांप्रदायिक दंगों से आमजन को बचाने के लिए अकेले ही बगैर अपनी जिंदगी की परवाह किये उन धर्मांध रक्तपिपासु भेड़ियों के बीच उतर गया था।

गांधी जी मानवता के पुजारी थे। वे कपड़ों से या नाम से पहचानकर पीड़ितों की मदद नहीं करते थे। इसीलिए जितनी चिंता उन्हें दिल्ली में मुसलमानों को बचाने की थी उतनी ही चिंता नोआखली में हिंदुओं की थी।

निश्चित तौर पर बंटवारे के लिए सबसे जिम्मेदार जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग तथा हिन्दू महासभा के नेता थे। ध्यान रहे कि ये सब भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर रहे थे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी तो आंदोलन को दबाने के लिए बाक़ायदा अंग्रेज गवर्नर को सलाह दे रहे थे। 

जिन्ना और हिंदू महासभा के नेताओं ने वातावरण को इतना विषाक्त कर दिया था कि तत्समय एकता की बात करना स्वप्न जैसा था। 1930 में इकबाल के अलग देश की मांग करना और फिर 1933 में रहमत अली का पाकिस्तान का विचार बंटवारे की दिशा में ही बढ़ते कदम थे। 

इसके बाद सावरकर और जिन्ना का इस राह चलना बंटवारे के विचार को और खाद-पानी दे गया।सावरकर जी ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का खुला समर्थन किया। 1937 में अहमदाबाद में हुए हिन्दू महासभा के अधिवेशन में हिंदू-मुस्लिम एकता को सिरे से खारिज करते हुए सावरकर ने हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्रों की अवधारणा रखी और यही नहीं 1945 में फिर से द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की पैरवी करते हुए आपने कहा कि “दो राष्ट्रों के मुद्दे पर मेरा जिन्ना से कोई मतभेद नहीं है।”

कहने का मतलब अलगाववाद की खुली पैरवी की गई। लेकिन दोषी फिर भी गांधी और नेहरू!  बावजूद इस तथ्य के कि जिन्ना और सावरकर हिंदू-मुस्लिम एकता की किसी भी तरह की संभावनाओं को सफल नहीं होने देना चाहते थे, गांधी को शरारतन दोषी ठहराया जाता है।

इस दरम्यान जो नरसंहार हुआ उसके सर्वाधिक गुनहगार जिन्ना थे। क्योंकि उनकी सत्ता लोलुपता ने ही सीधी कार्यवाही के लिए उकसाया, जो दंगों की वजह बनी।

1946 में जिन्ना का ‘डायरेक्ट एक्शन प्लान’ लड़कर पाकिस्तान लेने की रणनीति का ही एक हिस्सा था।गांधी अंत तक बंटवारे के खिलाफ रहे। संघ के एक बड़े नेता एच.वी.शेषाद्री ने अपनी किताब “द ट्रैजिक स्टोरी आफ पार्टीशन” में कहा है कि गांधी अंत तक बंटवारे का विरोध करते रहे।

कांग्रेस अपने धर्मनिरपेक्ष चरित्र के प्रति अंत तक संवेदनशील रही। कांग्रेस सद्भाव के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रही है। अपनी इसी प्रतिबद्धता के चलते 1945 के शिमला सम्मेलन में मुस्लिम लीग के मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि होने के दावे को खोखला साबित करने के लिए कांग्रेस की तरफ से मौलाना आजाद को अपना प्रतिनिधि बनाया गया।

विभाजन को रोकने के लिए गांधी तो यहाँ तक तैयार थे कि चलो जिन्ना को ही सत्ता का प्रमुख बना दिया जाय। जिन्ना इस पर भी तैयार न थे। वह अलग राष्ट्र की मांग से कम किसी चीज पर संतुष्ट नहीं थे।

कारण उनका असुरक्षाबोध था। वह मानकर चल रहे थे कि बाद में हिंदू बहुसंख्यक उन्हें वोट नहीं करेंगे जिस कारण वह बहुत दिनों तक सत्ता में नहीं रह पाएंगे। इससे ज्यादा गांधी कर भी क्या सकते थे? 

माउंटबेटन अपनी 3 जून की योजना, जिसमें बंटवारे की रूपरेखा तय की गई थी, पर गांधी जी की स्वीकृति चाहते थे। कांग्रेस के बड़े नेता भी हालात को देख बंटवारा स्वीकार कर चुके थे।

वे जिन्ना की धूर्तता के आगे कांग्रेस के समर्पण के सख़्त खिलाफ थे।दुःख से भरे गांधी को पहली बार जनमानस के बीच अपनी स्वीकार्यता खंडित होती दिखी होगी। 

बंटवारे के मुद्दे पर अकेले पड़ते गांधी ने 25 जून 1946 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कहा था- “मैं हार स्वीकार करता हूँ…आप लोगों को अपनी समझ के अनुसार काम करना चाहिए”कांग्रेस ने विभाजन के प्रस्ताव को सहमति दे दी थी।

मुस्लिम और हिन्दू विघटनकारी अतिवादियों ने अपनी कार्यवाहियों से समाज को इतना जहरीला बना दिया था कि विभाजन अवश्यम्भावी हो गया था। इतनी जनहानि के बाद इंसानियत कि रक्षा के लिए बंटवारा स्वीकार करना ही तत्कालीन परिस्थितियों में एकमात्र विकल्प शेष था।   

जो लोग नेहरू की महत्त्वाकांक्षा और प्रधानमंत्री बनने के लालच को विभाजन का जिम्मेदार मानते हैं, उन्हें पटेल के बयानों को भी पढ़ना चाहिए। ऐसे लोगों को यह भी बताना चाहिए कि नेहरू के लालच की पूर्ति में पटेल सहभागी क्यों बने?

आख़िर नेहरू की इच्छापूर्ति के प्रयासों में पटेल को आगे आने की क्या जरूरत थी? पटेल को तो प्रधानमंत्री बनना नहीं था, तो वो क्यों विभाजन की मांग के पैरोकार बने?

अगर हम कायदे से देखें तो पटेल के बयानों से तत्कालीन परिस्थितियों की गम्भीरता को समझा जा सकता है।सरदार पटेल एक जगह कहते हैं कि “यदि हमने पाकिस्तान की माँग को स्वीकार नहीं किया तो इस देश में अनेक पाकिस्तान बन जाएंगे।

हर दफ़्तर में पाकिस्तान की एक इकाई होगी” यह वक्तव्य मुस्लिम लीग की कारगुजारियों को बताने के लिए पर्याप्त है।पटेल ने वर्तमान माहौल से दुखी होकर कहा कि “जिन्ना विभाजन चाहते हों अथवा नहीं, लेकिन अब हम स्वयं विभाजन चाहते हैं”।

पटेल ज्यादा व्यवहारिक दृष्टि अपना रहे थे, जबकि गांधी जी ज्यादा सैद्धांतिक थे। जब अंग्रेजों ने “समूह से बाहर होने के अधिकार” को लेकर लीग के पक्ष में फैसला सुनाया तो पटेल क्रिप्स को पत्र लिखते हैं कि “आप जानते हैं गांधीजी पूरी तरह से हमारे समझौते के खिलाफ थे, लेकिन मैंने अपना जोर लगाया।

आपने मेरे लिए एक बेहद प्रतिकूल स्थितियां बना दी हैं”।पटेल और नेहरू ने सत्ता के लिए नहीं अपितु सांप्रदायिक उन्माद से उपजी गृहयुद्ध की त्रासदी से बचने के लिए बंटवारा स्वीकार किया था।

पटेल ने गांधी से कहा था – “सवाल यह है कि गृहयुद्ध या विभाजन। जहाँ तक गृहयुद्ध का सवाल है, कोई नहीं कह सकता कि यह कब शुरू होगा और कहाँ जाकर रुकेग?

सच है कि हिंदू अंत में जीत सकते हैं, लेकिन केवल एक अप्रत्याशित और बहुत बड़ी कीमत देकर ही”।इसलिए बंटवारे के लिए गांधी, नेहरू या कांग्रेस को जिम्मेदार बताए जाने की दलीलें तत्कालीन परिस्थितियों को जानबूझकर नजरअंदाज करने की सुनियोजित चाल है।

बंटवारे का यह सरलीकरण निष्कर्ष धूर्ततापूर्ण सोच है।क्या नेहरू और पटेल का यही दोष था कि उन्होंने गृहयुद्ध उत्पन्न करने वाले जिन्ना की हठधर्मिता के आगे झुकने से इंकार कर दिया।   जो बंटवारे का विरोध करे वही दोषी? क्या बंटवारे को रोक पाने की असफलता ही किसी को बंटवारे का दोषी सिद्ध कर देगी? 

गांधी की स्थिति तो उस बुजुर्ग की तरह थी जिसके लड़के बंटवारे के लड़-मर रहे थे। अगर मान लीजिए घर के सबसे बुजुर्ग की एकमात्र इच्छा कि पूरा घर एक रहे और घर के लड़के बंटवारे की जिद पर अड़कर, घर में खूब हायतौबा मचाए तो अंततः क्या होगा?

जाहिर है घर की शांति के लिए बंटवारा ही उचित होगा। इस दशा में गांधी की क्या स्थिति होगी उसका अंदाजा उनके 2 अप्रैल 1947 के वक्तव्य से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा था- ” मेरी बात अब कोई नहीं सुनता। मैं एक छोटा आदमी हूँ।

सच है कि एक वक्त था जब मेरी आवाज एक बड़ी आवाज़ थी। तब सब वह मानते थे, जो मैं कहता था; अब न हिन्दू मेरी सुनता है न मुसलमान”।

सो गांधी ने अंततः दंगों की विभीषिका से लोगों को बचाने के लिए बंटवारे को स्वीकार कर लिया। 

पाकिस्तान बन गया, बावजूद इसके हम अपनी सर्वधर्म समभाव की अवधारणा से इंच भर भी पीछे नही हटे। बंटवारे के बाद भी हमने अपने स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया। हम जिन्ना की राह नहीं चल सकते थे।

एक खास विचारधारा से पोषित लोग गांधी और नेहरू को तो जिम्मेदार बताते नहीं थकते, लेकिन द्विराष्ट्रवाद की वकालत करने वाले हिन्दू महासभा और सावरकर का नाम तक नहीं लेते।

आख़िर क्यों? 

भाई गांधी नेहरू से इतनी जलन क्यों? रही बात सावरकर की तो उनके पहले चरण के प्रति पूरी श्रद्धा होते हुए दूसरे चरण में स्वतंत्रता आंदोलन में किसी भी तरह की सक्रिय भागीदारी की अनुपस्थिति निराश करती है।

उनका दूसरा फेज़ किसी भी आंदोलन का गवाह नहीं बनता। बदलाव जिन्ना और सावरकर की सोच में आया था, न कि कांग्रेस की। वही सावरकर जो अपनी किताब “1857 का स्वातान्त्रय समर” में हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे, यहाँ तक आते-आते हिन्दू राष्ट्र के पैरोकार बन गए।

यही हाल जिन्ना का भी रहा। वो हिन्दू-मुस्लिम एकता के एम्बेसडर से अंध-सांप्रदायिकता के प्रवक्ता बन गये।कुछ लोग कहते हैं कि बंटवारे में सावरकर के तो कहीं हस्ताक्षर थे ही नहीं तो वह दोषी कैसे हुए?

विभाजन की खुली पैरवी के बाद भी ऐसी दलील!यहाँ यह ध्यान दिया जाय कि सावरकर की राय पूरे हिन्दू समाज की राय का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी।  

वह भारत की जनता के प्रतिनिधि नहीं हो सकते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अंत तक लड़ने वाली कांग्रेस ही भारत की चेतना की अधिकृत प्रवक्ता थी। 

भारतीय जनमानस पूरी तरह से गांधी और कांग्रेस के साथ था। गांधी की हत्या के बरसों बाद तक भारतीय समाज में कट्टर हिंदूवादी संगठनों की अप्रभावी स्थिति बताती है कि वे भारतीय समाज की मूल चेतना के प्रतिनिधि नहीं थे।  

बावजूद इन सब द्वेषपूर्ण आरोपों के गांधी और नेहरू देश की सीमाओं से परे पूरे विश्व में मानवीय मूल्यों की रक्षा हेतु आज भी प्रेरणा बने हुए हैं। वे भारत की पहचान हैं। पूरा विश्व गांधी को ईसा और बुद्ध के समतुल्य आदर देता है।

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