यहां बिंब और प्रतीक कथ्य को आश्चर्यजनक तरीके से विचारोत्तेजक बनाते हैं और यही मुक्तिबोध के लेखकीय कौशल की सार्थकता है।
लोकतंत्र में जिन खतरों को लेकर वह आशंकित थे, वो आज समक्ष हैं। उनकी एक बहुत ही चर्चित कविता है- ‘अंधेरे में’, यह बहुत बड़ी कविता है।
यद्यपि यह कविता स्वतंत्रता के पश्चात नेहरू युग के काल खंड से जुड़ी है तथापि इस रचना का दृष्टि विस्तार उसी कालखंड तक सीमित नहीं है।
कविता में उन परिस्थितियों, प्रवृत्तियों से जूझने का संकल्प है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अलोकतांत्रिक बनाने पर तुली हैं।
वह तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था के सतहीपन को बेनकाब करते हैं। यह जनवादी चेतना का आत्मकेंद्रित सत्ता के विरुद्ध एक तरह से विद्रोह है और आग्रह है यह लोकधर्मी चेतना का सुशासन हेतु।
नेहरू के मॉडल की निर्मम आलोचना करने वाले मुक्तिबोध ने, उन्हीं नेहरू की मृत्यु पर बहुत दुःखी होकर कहा कि लोकतंत्र के लिए अब ख़तरा और बढ़ गया है….
आइये इस ऐतिहासिक कविता की कुछ पंक्तियां देखें.
“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरेउठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक”
विशुद्ध बुद्धिवाद और घोर आत्मकेंद्रीकता को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं कि–
“ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर, बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम, मर गया देश,
अरे जीवित रह गये तुम!! लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य–मार डाले! बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये, जम गये,
जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम मर गया देश,
अरे जीवित रह गये तुम…”
और वे यहीं नहीं रुकते वह सामाजिक दायित्व का गम्भीर सवाल भी खड़ा करते हैं — “वे आते होंगे लोग
जिन्हें तुम दोगे
देना ही होगा, पूरा हिसाब
अपना, सबका, मन का, जन का।’
इस तरह मुक्तिबोध सम्पूर्ण मानव समाज की चिंताओं से सरोकार रखने वाले एक बहुत ही संवेदनशील दार्शनिक कवि हैं।।
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